

संपादकीय
“स्लम नहीं, यह उनकी मजबूरी है”

हर बार जब कोई मंत्री या नगर निगम अधिकारी ‘स्लम फ्री इंडिया’ का नारा लगाता है, तो मानो देश के विकास की एक नई तस्वीर उभरने लगती है। अखबारों में फोटो छपते हैं, मंचों पर भाषण गूंजते हैं, और टीवी चैनलों पर विकास की कहानियाँ सुनाई जाती हैं। लेकिन इन नारों और घोषणाओं के पीछे क्या कोई कभी यह सोचता है कि जो लोग स्लम में रह रहे हैं, वे आखिर वहां क्यों रह रहे हैं? क्या किसी ने उनसे यह पूछा है कि वे वहां खुशी से रह रहे हैं या मजबूरी में?
सच यह है कि स्लम की झुग्गियों में रहने वाले लोग कोई विकल्प नहीं होने के कारण वहाँ रहते हैं। उनका दोष सिर्फ इतना है कि वे गरीब हैं, लेकिन मेहनती हैं। वे वहीं मजदूर हैं जो शहर की इमारतें बनाते हैं, सफाई करते हैं, घरेलू काम करते हैं, लेकिन उनके लिए इस शहर में एक सुरक्षित कोना नहीं होता। किसी भी बड़े शहर के किसी भी कोने में चले जाइए, आपको छोटी सी एक झोपड़ी में छह-आठ लोगों का परिवार मिलेगा, जो उसी में खाना पकाता है, सोता है, बच्चों को पढ़ाता है, और वही उनका पूरा संसार होता है। न शौचालय की सुविधा है, न साफ पानी, न बिजली की गारंटी। बरसात में टपकती छतें हैं, सर्दियों में कांपते शरीर हैं, गर्मियों में मच्छरों का हमला है – लेकिन वे वहीं रहते हैं, क्योंकि उनके पास और कोई जगह नहीं है।
हर कुछ वर्षों में जब विकास योजनाओं का पहिया घूमता है, तब सबसे पहले इन बस्तियों को ‘अवैध कब्जा’ घोषित कर दिया जाता है। और फिर बिना किसी मानवीय सोच के बुलडोजर भेज दिए जाते हैं, जो न सिर्फ दीवारें गिराते हैं, बल्कि सपने, स्मृतियाँ और पूरे जीवन की मेहनत भी मिटा देते हैं। उस वक्त सरकारें चुप रहती हैं, अदालतें तकनीकी कारणों का हवाला देती हैं, और पूरा तंत्र एक गरीब के जीवन को इस तरह रौंद देता है जैसे वह कोई संख्या भर हो। क्या कभी उन अधिकारियों ने सोचा है कि जिनका घर उजाड़ा जा रहा है, उनका नया ठिकाना क्या होगा?
यह सच है कि किसी भी शहर को व्यवस्थित रखने के लिए योजना और अनुशासन जरूरी है, लेकिन यह भी सच है कि किसी की छत छीन लेना, बिना उसे नया विकल्प दिए, एक क्रूरता है – और शायद संविधान के मूल सिद्धांतों के भी खिलाफ है। अगर सरकारें वाकई स्लम हटाना चाहती हैं, तो पहले उन्हें यह समझना होगा कि स्लम का निर्माण गरीब नहीं करते, बल्कि असमान योजनाएँ करती हैं। जब गांवों में रोजगार नहीं होता, जब किसान आत्महत्या करता है, तब उसका बेटा शहर आता है। जब शहर में मजदूरी करता व्यक्ति महीने का किराया नहीं चुका सकता, तब वह झुग्गी में बसता है। जब नीति निर्माण में गरीब की आवाज़ नहीं होती, तब स्लम उगते हैं।
इसलिए यह ज़रूरी है कि विकास की योजना बनाते वक्त स्लमवासियों को भी मानवीय दृष्टि से देखा जाए। उन्हें केवल अतिक्रमणकारी न समझा जाए, बल्कि शहर का योगदानकर्ता नागरिक माना जाए। यदि उन्हें सस्ते और सुरक्षित घर दिए जाएं, यदि रोजगार स्थायित्व मिले, यदि उनके बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य की चिंता की जाए – तो कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा से गंदगी और असुरक्षा से भरी झुग्गी में नहीं रहना चाहेगा।
देश को स्लम फ्री तभी बनाया जा सकता है जब उसे मजबूरी फ्री किया जाए। अगर हम यह चाहते हैं कि भारत की तस्वीर साफ-सुथरी और सुंदर हो, तो हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि विकास की इस तस्वीर में सबसे गरीब व्यक्ति की आँखों में भी उम्मीद की चमक हो, न कि उजड़े घरों की राख।
हमारे नीति-निर्माताओं, प्रशासकों और समाज के प्रत्येक जागरूक नागरिक को यह सोचना होगा कि बुलडोजर चलाने से पहले उस झोपड़ी में बसते जीवन को देखे। उसमें रोशनी कम हो सकती है, दीवारें कच्ची हो सकती हैं, पर वहाँ भी अरमान पलते हैं, वहाँ भी एक परिवार होता है, जिसकी गरिमा किसी भी बड़े बंगले में रहने वाले परिवार से कम नहीं होती।
स्लम हटाने से पहले उनकी मजबूरियाँ हटाइए। तब जाकर देश सच में आगे बढ़ेगा – इंसानियत के साथ, सम्मान के साथ।