*पाठकों के लेख:दादा लखमी: ए म्यूजिक जर्नी ऑफ़ पंडित लख्मीचंद’ पर हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी के साहित्य कला संवाद कार्यक्रम में परिचर्चा*

लेख डॉ रक्षा गुप्ता
दादा लखमी: ए म्यूजिकल जर्नी ऑफ़ पंडित लख्मीचंद’ पर हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी के साहित्य कला संवाद कार्यक्रम में परिचर्चा
✍️ डॉ. रक्षा गीता
‘दादा लखमी: ए म्यूजिकल जर्नी’ फिल्म पर हिमाचल कला संस्कृति भाषा’ के फेसबुक पेज पर व यूट्यूब चैनल ‘साहित्य कला संवाद’ श्रृंखला 683 पर एक लाइव परिचर्चा का आयोजन किया गया। हरियाणा के सांग और रागिनियों के नाम से लगभग सभी परिचित हैं किन्तु रागिनियों व सांग के लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध लोक कलाकार दादा लखमी जिनकी तुलना शेक्सपियर और कालिदास से की जाती है। दादा लखमीचंद ने लोक प्रसिद्ध कथाओं को अपने सांग में उतारकर एवं गीत-संगीतबद्ध कर उन्हें हरियाणा ही नहीं बल्कि पूरे भारत में प्रसिद्ध कर दिया। भविष्यदर्शी, अद्भुत दैवीय-शक्ति प्रतिभा के धनी, के जीवन पर अभिनेता से निर्देशक बने यशपाल शर्मा ने अपने इस ड्रीम प्रोजेक्ट में लगभग पाँच वर्ष लगाए।
परिचर्चा में दादा लख्मीचंद फिल्म की लगभग पूरी टीम ने भाग लिया। परिचर्चा की सूत्रधार रही दक्षा शर्मा जी ने बताया कि यह फिल्म रिलीज़ से पूर्व ही करीबन 60 से भी अधिक फिल्म फेस्टिवलों में अपने झंडे गाड़ चुकी है। फेसबुक पर अशोक मेहता ने टिप्पणी भी की- ‘60 से ज्यादा इंटरनेशनल अवार्ड ले चुके दादा को एक फ्लैट अलग से लेना पड़ेगा।’ फिल्म का दूसरा हिस्सा बनना बाकी है। यह फ़िल्म बेस्ट एक्टर, बेस्ट डायरेक्टर व म्यूजिक के लिए अवार्ड ले चुकी है।
परिचर्चा में फिल्म समीक्षक तेजस पूनियां जी जिन्होंने खुले दिल से फिल्म को 5 स्टार दिए हैं, उन्होंने फिल्म से जुड़े कई महत्वपूर्ण पक्ष बताएं। कि आखिर क्यों इसे 5 स्टार मिले। क्योंकि इस फिल्म का दूसरा भाग भी बनाने वाला है, इसलिए भी उन्होंने इस फिल्म से संबंधित प्रश्न पूरी टीम से पूछे। तेजस पूनियां ने अपनी बात इस वाक्य से आरंभ की कि एक बार देखी पर जी नहीं भरा। मैं अभिभूत हूँ। पहली दफा तो नि:शब्द हो गया तो दोबारा देखी और बार-बार देखने का मन है। ‘ना तो इस दुनिया से कोई कतई गया था, ना कोई इस दुनिया में सदा रह्या सै… यह सारा पंच तत्व का खेल सै। उनके अनुसार हरियाणा में देवता के समान पूजे वाले दादा लखमीचंद के ये शब्द अनंत काल तक गूंजते रहेंगे। आपको फिल्म में लोक संस्कृति सभ्यता के प्राण बिंदु और मानवीय संवेदनाओं की अनुगूंज सुनाई पड़ेगी, एक राह दिखाने वाली फिल्म है और आने वाले सिनेमा विशेषकर हरियाणवी में सिनेमा की दशा और दिशा तय करेगी।
परिचर्चा से यह समझ आया कि हम हमारी लोक कथाओं लोक-कलाकारों उनके गीत संगीत को विस्मृत करते जा रहे हैं और यह तथ्य झुठलाया नहीं जा सकता। उसमें कहीं ना कहीं हमारे कमर्शियल सिनेमा का हाथ है। क्योंकि सिनेमा ने लोक संगीत को तोड़-मरोड़ कर उनकी लोकप्रियता को भुनाने हेतु विकृत कर भ्रष्ट ढंग से प्रस्तुत किया है। दर्शकों की रूचि को विकृत किया है। ऐसे में यह फिल्म दर्शकों की रुचि का परिष्कार करने वाली फिल्म साबित होगी और एक बेहतरीन माध्यम बनकर आएगी। जिन कलाकारों से हमारा समाज परिचित नहीं है अथवा जिनका रुख़ अपसंस्कृति की ओर जा रहा है। फ़िल्म साहित्य संस्कृति और कला से ना केवल परिचित करवाएगी बल्कि दादा लखमीचंद के व्यक्तित्व, गीत-संगीत का सकारात्मक प्रभाव और समाज में प्राण फूंकने का काम करेगी, सार्थकता देगी। अन्य सिनेमाकारों खासकर क्षेत्रीय सिनेमा को इस तरह का सार्थक सिनेमा बनाए के लिए प्रेरित भी करेगी। भारत की समृद्ध लोक संस्कृति में ऐसे अनेक लोक कलाकार हैं जिन पर बहुत काम करना बाकी हैं। डॉक्टर अल्पना सुहासी फेसबुक पर लिखती हैं कि दादा लखमी फिल्म से हरियाणा की एक स्वच्छ छवि समस्त विश्व के सम्मुख पहुंचेगी।
तेजस पूनियां के अनुसार हमारे देश का रिदम बिगड़ गया है, एक दृश्य में स्पष्ट होता है कि दादा लखमीचंद लापरवाही बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाते। इसलिए वे कहते हैं कि ‘ज्यादा तानसेन न बनो कानसेन भी बनो’, ‘एक सुर अगर इधर उधर होता है तो वह संगीत नहीं शोर हो जाता है’। फ़िल्म हमारे जीवन में नए सुर और समझ के साथ आई है। जबकि देश का सुर बिगड़ा हुआ है लखमीचंद का व्यक्तित्व उनका चरित्र आज सिनेमा के माध्यम से हमारे देश के सुर को संवारने के लिए आ रहा है। फ़िल्म की काव्यमयी, आनंदमयी अभिव्यक्ति के लिए वे फिल्म की पूरी टीम का अभिनंदन करते हैं। गुरु की खोज में बालक लखमीचंद ने बहुत कष्ट झेले। एक संवाद कि 15 दिन में 15 चमोले सीख लिए घाटे का सौदा नहीं, शिष्य के रूप में बालक के भीतर की जो ललक और जिज्ञासा है वह तमाम सुविधाओं के बावजूद हमें आज के विद्यार्थियों में नहीं मिलती।
सिनेमा और साहित्य जब मिलकर काम करते हैं तो मील का पत्थर बनाते हैं यह फिल्म भी मील का पत्थर साबित होने वाली है। फिल्मकारों ने लोक साहित्यकार लखमीचंद के जीवन और साहित्य से संबंधित किताबों का खूब अध्ययन मनन किया, उसे अपने भीतर उतारा तब जाकर हमारे सामने यह फिल्म दादा लखमीचंद म्यूजिकल जर्नी सामने आती है। प्रदेश सरकारों को इस ओर ध्यान देना होगा और इस फिल्म के महत्व को देखते हुए सरकार ऐसी फिल्मों के निर्माण में मदद करने के लिए आगे आना चाहिए। साहित्य के विद्यार्थियों के लिए और उनके शोध के लिए भी यह फिल्म बहुत महत्वपूर्ण होने वाली है एक दर्शक ने फेसबुक पर पूछा भी क्या हम इस पर शोध पीएचडी कर सकते हैं?
निर्देशक अभिनेता यशपाल शर्मा से तेजस जी ने पहला प्रश्न किया कि दादा लखमीचंद ही क्यों? जवाब में पहले तो उन्होंने हँसते हुए जवाब दिया कि गलती कर दी लेकिन दक्षा शर्मा जी ने कहा कि बहुत खूबसूरत गलती है। फिर आगे उन्होंने कहा कि मेरी फिल्म की थीम संगीत है। एक ऐसा संगीत जो आपको नई दुनिया जिसमें कोई भेदभाव, क्लेश, जात-पांत छुआछूत न हो, बसाने के लिए प्रेरित करेगी। उन्होंने नाना पाटेकर की फिल्म ‘नटसम्राट’ का उदाहरण देते हुए बताया कि मैं चाहता था कोई ऐसी कहानी जो अब तक लोगों तक नहीं पहुंची हो और जो प्रेरणादायक हो। फिल्म के लेखक व अभिनेता राजू मान ने कहा कि लखमीचंद से बेहतर कौन हो सकता है? और इस तरह कहानी की नींव पड़ी। आज हमारे नवयुवकों को लोक साहित्यकारों, लोक गीतकारों और उनकी आध्यात्मिकता, प्रेम, सद्भाव से जोड़ना बहुत जरूरी है। आज चारों ओर धर्म, जाति सम्प्रदाय के नाम पर नफरत का बोलबाला है। लोगो को सूचनाएं तो मिल रही हैं लेकिन विवेक का अभाव है। यह फिल्म समदर्शी भाव के उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ती है। कलाकार की कोई जात-धर्म नहीं होता बस कलाकारी ही उसकी धर्म होता है। सिनेमा में जो अश्लीलता बढ़ती जा रही है। उनके भी फिल्म चुनौती की तरह होनी चाहिए। दादा लखमी की जिंदगी में बहुत उतार-चढ़ाव रहे हैं। बहुत कम उन्होंने आयु पाई बावजूद उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक थी। लोग 20-25 मील दूर से पैदल उनकी आवाज सुनने भर को आते थे तथा सांग देखने के लिए आते थे। यशपाल जी ने बताया कि शूटिंग के वक्त मैं खुद भी दादा लखमी की तरह हो जाया करता था क्योंकि उनकी तरह मैं भी आलस्य, गलत नियत को बर्दाश्त नहीं कर सकता, जरा कोई ढीला पड़ा मैं कहता ‘भैया इससे अच्छा तो सरकारी नौकरी कर लो एक फिल्म बनाना अंगारों पर चलने जैसा है।’ और ऊपर से दादा लखमी की बाइयोपिक बनाना तो एक जोखिम भरा काम है। 100 साल पहले जो दादा लखमी लिख गए आप देखिए वह आज हो रहा है इसलिए वे भविष्यदर्शी, पवित्र आत्मा थे जो कहीं समझौता नहीं करते थे फेसबुक से अखिलेंद्र मिश्रा जी भी लिखते हैं कि ‘ऐसी फिल्में पागलपन में बनती हैं यानी जुनून होने पर ही बनाई जाती है।’
अगला प्रश्न दक्षा जी ने राजू मान से जो हरियाणा के प्रख्यात लेखक, अभिनेता और निर्माता निर्देशक हैं। सुपरहिट हरियाणवी फ़िल्म ‘चंद्रावल’ में उन्होंने खलनायक का रोल भी किया था। उनसे किया कि ‘एक बायोपिक लिखना और उसकी ऑथेंटिसिटी यानी विश्वसनीयता को बनाए रखना कितना कठिन रहा? मानसिंह ने जवाब दिया कि हरियाणवी सिनेमा पिछड़ता-सा जा रहा है। हमें पूरा विशवास है की यह फ़िल्म उसे एक गति देगी और सबसे महत्वपूर्ण इस फिल्म के माध्यम मेरी तरफ से दादा लखमी को श्रद्धांजलि भी है। जहां तक बायोपिक की बात है तो मैंने खूब रिसर्च किया, हरियाणा के अतिरिक्त यूपी, राजस्थान उनके गांव में उनके परिवार वालों से मैंने खूब पूछताछ की, बात की किताबें पढ़ी। यानी एक बेहतर बायोपिक फिल्म बनाने में जो मेहनत करनी चाहिए। लेखक के रूप में उन्होंने किया। और यदि कहानी बेहतर होगी तो उसको बनाने वाले को भी आनंद आएगा। उनके रोल के विषय में यशपाल बताते हैं कि यह उस गांव के सीसीटीवी हैं और कला संस्कृति के खुद को ठेकेदार समझते हैं, खुद चाहे कुछ भी करें। ऐसे ही एक दृश्य के विषय में तेजस जी ने कहा कि बाइस्कोप वाले सीन में कुछ बच्चे बाईस्कोप देख रहें हैं तो ये आते हैं, बच्चों को डाँटते हैं कि तुमने हमारी कला और संस्कृति को भ्रष्ट किया हुआ है। लेकिन फिर खुद ही देखने बैठ जातें हैं। जाति-पांति के संदर्भ में राजू मान ने एक विशेष बात बताई की शिव स्त्रोत्र में शिव ने अपने शरीर को चार भागों में बांटते हुए बताया है कि हमारा सिर ब्राह्मण है, जहां ब्रह्मा निवास करते है। सीना और हाथ क्षेत्र है इसलिए वह क्षत्रिय है। पेट हमारा वैश्य यानी भरण पोषण की बात है। और हमारे पूरे शरीर का भार ढोते हैं हमारे पैर इसलिए वे बेचारे क्षुद्र हैं। लेकिन मनु ने जब मनुस्मृति लिखी और इसे बनाया तो उन्होंने इसको समाज से जोड़ दिया। जो वास्तव में ‘मैनमेड’ है हमारी फिल्म उस वर्ण व्यवस्था, ब्राह्मणवाद करारी चोट करती है। और जिस-जिस पंचतत्व के खेल की बात दादा लखमी करते हैं उसका नायाब प्रस्तुतीकरण आपको दूसरी फिल्म में भी मिलेगा।
रामपाल बल्हारा जो फिल्म के एग्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर हैं ‘चंद्रावल’ फिल्म में उन्होंने मुख्य नायक की भूमिका निभाई, वे एनएफडीसी और नेशनल अवॉर्ड्स में जूरी मेंबर भी रह चुके हैं। उन्होंने फिल्म के विषय में बताया कि जब उन्होंने यशपाल के जुनून को देखा तो उन्होंने इस फिल्म से जुड़ने का निर्णय लिया यशपाल का passion hi asset है। हरियाणवी भाषा में संवाद अदायगी की विशेषता पर उन्होंने कहा कि भाषा और संवाद में बहुत सहजता को डेवलप किया जहाँ आपको भाषा को कठोरता नहीं अपितु कोमलता के दर्शन होंगे, जो हरियाणवी सिनेमा के लिए सुखद संकेत है। फिल्म अच्छी बनी है क्योंकि अच्छी बनाई गई है। हर किसी ने इसे अच्छा बनाने में जी तोड़ मेहनत की है। उन्होंने राजू जी की उस चिंता को समझते हुए कि ‘इसमें ग्लैमर तो है नहीं बड़ी-बड़ी औरतें हैं, का बहुत सटीक उत्तर दिया कि फिल्म के संवादों और रागिनियों में इतना ग्लैमर आपको दिखाई देगा। वही आपको इतना बांध लेंगे कि दर्शकों को कुछ और सोचने का अवसर ही नहीं मिलेगा। वे भीतर तक कथा चरित्र गीत, संगीत में डूब जायेंगे या बाहरी ग्लैमर खोजने की आपको यहां जरूरत नहीं पड़ेगी। भौतिकता का कोई महत्व नहीं है। रामपाल जी बताते हैं कि सुरेंद्र शर्मा ने जब इस फिल्म को देखा तो कहने लगे अरे ढाई घंटे की थी पता ही नहीं चला कब खत्म हो गई।
बालक लखमीचंद का रोल निभाने वाले योगेश वत्स से पूछा हरियाणवी बोलने के लिए क्या चुनौती है? उन्होंने कहा कि नहीं मैं तो हरियाणा से ही हूं इसलिए मुझे इसमें कोई चुनौती नहीं आई, दूसरा मेरे पिताजी और दादा जी हमें रागनियां सिखाया करते थे और मैं अपने स्कूल में मंच से रागनियां करता हूं। तो कहीं ना कहीं हम कह सकते हैं कि इस बालक में दादा लखमीचंद के तत्व के सूक्ष्म बिंदु के रूप में ही हो रहा होगा। उन्होंने एक बहुत सुंदर उनका रागिनी सुनाई ‘गुरु एक विद्या अनेक, गुरु बिना ज्ञान नहीं मिलता, बिन गुरु गति नहीं जीवन में, बिना गुरु भगवान नहीं मिलता, अरज सुनो इस बालक की, ना ते जीना मुश्किल हो जागा, हे गुरुवर आपके चरणों में अगर, मुझ को स्थान नहीं मिलता, मैं माटी का गारा पत्थर सूं ,मेरी तस्वीर बना दो तुम, इस अनपढ़ गँवार चरवाहे की बिगड़ी तकदीर बना दो तुम।’ सुनकर हृदय भीतर तक पिघल गया। मुझे पूरा विश्वास है कि फिल्म में जब हम रागिनी सुनेंगे तो दर्शकों का अंतर्मन तक भीग जाएगा और वही फिल्म का उद्देश्य भी है। तेजस पूनियां जी ने कहा अच्छी फिल्म देखना अच्छी किताब के समान होता है इस फिल्म पर यह चरितार्थ होगा।
तेजस जी का अगला प्रश्न पूरी टीम से था कि आप सभी के भीतर दादा लखमी किस तरह से हैं? योगेश ने पूर्व में बताया था कि मैं बचपन में भी मांगेराम दादा लखमी की रागनियां गाया करता था इसलिए कुछ अंश तो उनके भीतर है ही। हितेश शर्मा जिन्होंने युवा दादा लखमी का रोल निभाया है उन्होंने कहा कि दादा तो संत आदमी थे, जिस दैवीय शक्ति से वे युक्त थे उनकी तुलना गौतमबुद्ध के जैसे हो सकती है। हम तो उन तक पहुंच नहीं सकते। हम उनकी छवि भीतर नहीं ला सकते। हालांकि बाद में वे कहतें हैं कि वैसे सभी के भीतर दादा लखमी जैसी एक पवित्रता होती है पर हम उसे पहचान नहीं पाते। राजू मान सिंह ने एक शेर कहा कि ‘सर जिसपे न झुक जाए उसे दर नहीं कहते हर दर पर जो झुक जाए उसे सर नहीं कहते।’ यानी हम तो सिर्फ दादा लखमी के आगे सिर झुका सकते हैं। अगर हम यह फिल्म ना बनाते तो शायद आज यह लगता है कि कुछ अधूरा रह गया जीवन में, पंचतत्व में भगवान का अर्थ बताते हुए कहते हैं कि भ-भूमि, ग-गगन, व-वायु, अ-अग्नि तत्व जो दादा लखमी में हैं। जिसकी ओर सबका सिर झुकता है। रविंदर राजावत अनुसार मैं यही समझ पाया कि दादा लखमी का ईश्वर से कुछ ना कुछ तो कनेक्शन था और यही कारण है कि वह ब्रह्म ज्ञानी थे, भविष्यदर्शी थे और लोक में भी सब उन्हें ईश्वर का दर्जा देते हैं। फेसबुक पर लखविंदर सिंह लिखते हैं ‘कलयुग एक बाप के दोनों बेटे ना पेट भरण पावेगा वीर मर्द हो न्यारे न्यारे हिसाब खत्म आवे का घर घर में होंगे पंचायती कौन किसे समझा वेगा मनुष्य मात्र का धर्म छोड़कर धन जोड़ा जावेगा।’ वास्तव में यह आज का सत्य ही है। रामपाल बल्हारा ने कहा कि सांग देखना पहले बुरा माना जाता था लेकिन यहां आपको सांग में जो रागनियां सुनाई पड़ेगी कहीं ना कहीं वह जनता के हृदय में स्थान बनाएंगी। इन आध्यात्मिक नैतिक मूल्यों से परिपूर्ण रागनियों पर हमें गर्व है। और जब यशपाल जी अपने भीतर दादा लखमी होने के सन्दर्भ में उत्तर दिया कि अंदर 20% दादा लखमी रहे हैं और जब दूसरा भाग करेंगे तो 80 परसेंट भी आ जाएगा वे कहते हैं कि मैं एक ब्रह्म ज्ञानी की कहानी कह रहा हूं धर्म नहीं। धर्म अलग चीज होती है और ब्रह्म ज्ञान अलग चीज होती है। फिल्म बनाते हुए वह कहते हैं कि हमारी नजर चिड़िया की आंख पर थी उस समय परिवार यारी दोस्ती सब गौण हो जाते थे।
तेजस पूनियां ने अगला प्रश्न किया कि फिल्म के आरंभ में ऐसा दिखाया है कि शराब पीने से दादा लखमी मृत्यु हुई तो क्या यह फिल्म हमें नशे के तंत्र पर भी कुछ बेहतर मार्गदर्शन देने वाली है? इसका उत्तर राजू मान ने उत्तर दिया कि पहले वे शराब नहीं पीते थे लेकिन जब उन्हें निमोनिया हुआ तो किसी ने उनको शराब पीने के लिए दे दी उनको थोड़ी राहत मिली लेकिन बाद में उन्हें आदत लग गई मानसिक रूप से उन्हें लगा की पीने से ही उनके सुर बेहतर निकल पाते हैं। Acceleration जिसे हिंदी में वेग बुद्धि कहते हैं यानी उन को यह लगा कि यदि मैं यह नहीं पियूंगा तो मेरा दिमाग काम नहीं करेगा, जो कि यह गलत धारणा थी शायद मुझे ऐसा लगता है बिना माइक के लिए बहुत ऊंचे सुर में गाया करते थे।
यशपाल एक और पते की बात कही कि भाई मैं चाहता हूं कि दादा लखमी को कोई भगवान न बनाए या उसका महिमामंडन ना किया जाए कारण जैसे ही हम महिमामंडन करते हैं, पूजा शुरु कर देते हैं तो वही कर्मकांड आ जाते हैं। हम चाहते हैं कि वे इंसान हैं और उस इंसान की इंसानियत को ही अपने भीतर तभी हम उनकी कमियां बता रहे हैं। चमत्कार नहीं प्रस्तुत करना क्योंकि कहीं ना कहीं एक कहानी मैंने भी पढ़ी थी कि दादा लखमी को इंद्र ने श्राप दिया था कि अब तुम धरती पर जाओ लेकिन फिर माफ़ी माँगने पर यह वरदान भी दिया कि तुम्हारे गले में सरस्वती का वास होगा मुझे ऐसा लगता है यदि इस कथा को उन्होंने नहीं फ़िल्माया तो अच्छा ही किया। अंतिम प्रश्न तेजस जी का था कि जिस तरह से हम कमर्शियल सिनेमा और सार्थक सिनेमा की बात करते हैं तो कमर्शियल सिनेमा तो चल निकलता है लेकिन सार्थक सिनेमा इतनी मेहनत और अच्छे उद्देश्य के बाद भी फिल्म हिट नहीं हुई तब भी क्या आप दूसरी फिल्म बनाएंगे? यशपाल जी ने दृढ़ता पूर्वक उत्तर दिया हम दूसरा भाग जरूर बनाएंगे और इस फिल्म के लिए भी हर जगह गांव वगैरह में पब्लिसिटी करेंगे। क्योंकि मुझे यह लगता है कि यह फिल्म आर्काइव में रखने योग्य हैं 5 साल में फिल्म बनी है, आसान काम नहीं था। क्या आपको लगता है कि यह सिनेमा समाज देश में जो अब संस्कृति का प्रचार-प्रसार हो चुका है उसे बचाने में लोक संस्कृति को बचाने के लिए फिल्म मील का पत्थर साबित होगी? इस प्रश्न के उत्तर में राजू जी ने कहा, हां,जरूर साबित होगी क्योंकि हमने सभी ने बहुत मेहनत की है पूरी ईमानदारी से मेहनत की है यह जरूर जरूर मील का पत्थर साबित होगी।
जब कहा कि यशपाल जी आपने अंतिम लखमीचंद के रोल के लिए खुद को ही क्यों लिया तो उन्होंने बताया कि मैं तो रणबीर हुड्डा को देना चाह रहा था लेकिन मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैंने दादा लखमी को खूब पढ़ा है और दादा लखमी मेरे दिल-दिमाग, मेरे रग-रग में छा गए थे मुझे लगा कि उनके विचार है शायद मुझसे बेहतर कोई ना कह सके, कर पाए फिर सभी लोगों ने भी कहा कि यह तुम ही कर पाओगे। अगले भाग में मिलेंगे राम जाट मेहर सिंह देव राम बाजे भगत सभी महत्वपूर्ण है जो आपको दूसरे भाग में देखने को मिलेंगे।
चर्चा बहुत ही महत्वपूर्ण व सार्थक रही। निर्देशक पवन शर्मा फेसबुक में कहते हैं कि जितना मुझे फिल्म देखने में आया उतना ही मजा इस चर्चा में भी आ रहा, प्रेम मोदी पंचलाइट फिल्म के निर्देशक राजेंद्र गौतम गिरिजा शंकर, सुधीर ढांडा भी फेसबुक पर चर्चा में भाग ले रहे थे विविध साहित्यकारों ने नवगीतकार राजेंद्र गौतम, सुरेंद्र शर्मा कुंवर बेचैन ने फिल्म को खुले दिल से सराहा। साहित्यकार कुंवर बैचैन ने भी फिल्म देखकर इसकी बहुत प्रशंसा की है। लोक साहित्य और संस्कृति और भाषा के विकास में प्रतिबद्ध हिमाचल अकादमी कि यह चर्चा कहीं ना कहीं हिंदी सिनेमा के माध्यम से लोक संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण साबित होगी। साहित्य कला संवाद कार्यक्रम के सम्पादक हितेन्द्र शर्मा जी के अनुसार अनसंग हीरो सिर्फ स्वतंत्रता सेनानी नहीं है बल्कि लखीराम जैसे हमारे कलाकार भी हैं जिन्हें याद रखना बहुत जरूरी है और यह एक जज्बे के साथ जुनून के साथ कलाकारों को सामने लाने वाली फिल्म है कोरोना में जिस प्रकार लोग अवसाद से जूझ रहें हैं यह संगीतमय यात्रा लोगों में ऊर्जा का संचार भरेगी, प्रेरणा देगी। अंत में हितेन्द्र जी ने कहा कि पेड़ पत्तियां बदलता है जड़ों को नहीं यह फिल्म हमें हमारी जड़ों की ओर ले जा रही है।
✍️ डॉ. रक्षा गीता
आलोचक, फिल्म समीक्षक व लेखक
सहायक आचार्य हिंदी विभाग
कालिंदी महाविद्यालय दिल्ली विश्वविद्यालय