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*संविधान और भारत के लोग*लेखक उमेश बाली*

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संविधान और भारत के लोग
आज बात धर्म निरपेक्षता और धर्म पर होगी । बहुत अफसोस की बात है कि धर्म निरपेक्ष लोगो ने भारत को धर्म निरपेक्ष नहीं रहने दिया और धार्मिक लोगो ने धार्मिक सदभाव की तरफ कोई कदम नहीं उठाए । देश में न तो सदभाव रहा न धर्म निरपेक्षता रही । एक बानगी देखिए कुछ राजनीतक दलों ने तुष्टिकरण के लिए संविधान से खिलवाड़ किया। धर्म निरपेक्षता का अर्थ है राज्य या सरकार हर धर्म से बराबर की दूरी रखेगी लेकिन हमने वह समय भी देखा की एक वोट बेंक पर कब्जा ज़माने के लिए , कभी मुलिम पर्सनल लॉ बोर्ड को मान्यता दी कभी वक्फ बोर्ड को जमीनों पर कब्जे के लिए असीम आधिकार दिए । कभी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने के लिए संविधान में संशोधन कर दिए गए । इतना ही नहीं अलगाव वादी तत्वों से पींगे बढ़ाई और उग्रवादी तत्वों को मुख्य धारा में लाने के लिए हर कानून ओर नियम को ताक में रख कर लाभ पहुंचाने की कोशिश की । इतना ही नहीं मुंबई हमले में एक वर्ग के अलगाव पसंद लोगो को तुष्ट करने के लिए बेगुनाह हिंदुओं को भीं कभी सरकार ने लपेट लिया । इतना ही नहीं अगर कसाव जिन्दा न पकड़ा जाता तो पता नही कितने गरीब लोगो को सलाखों के अंधेरे में धकेल दिया जाता । सबसे शर्मनाक कांड तो तब हुआ जब बाटला हाउस एनकाउंटर में इनका अपना प्रधानमंत्री यह कहता रहा कि यह एनकाउंटर फेक नही था तो सलमान खुर्शीद जैसे लोग रोने लगे और सोनिया गांधी को भीं रुला दिया । हद तो तब करदी जब संसद ने दो बार यह बिल ले आए कि किसी भी अल्पसंख्यक की हत्या की जिम्मेदारी बहुसंख्यक लोगो पर होगी यानि वहां भी हिंदुओ को रगड़ने की पूरी तैयारी थी लेकिन धर्म निर्पेक्षता बचाने के लिए लाउड स्पीकरों के शोर को कम करने के लिएं कोई कदम नहीं उठाया । केरल में उच्च न्यायालय के निर्देशों पर भी कार्यवाही नही की अपितु हिन्दू और ईसाई लड़कियों के खिलाफ हिंसा होता रही इसके लिए वामदल भी जिम्मेदारी से नही बच सकते । यह उदाहरण काफी है धर्मनिरपेक्षता को जख्मी करने के लिए ।
अब दूसरी तरफ एक बानगी देखिए । कहने को धार्मिक सदभाव पैदा करेंगे । लेकिन हुआ उल्ट ,पहले घोर अलगाव वादी मजवूबा से मिल कर सरकार बनवाना । दूसरी तरफ आरंभ में ही एक ऐसे मुस्लिम की हत्या जिसने गो मांस घर में पकाया जो की कानूनी तौर पर पूरी तरह गलत था लेकिन उसका हल उसे कानून के हवाले करने से भी निकल सकता था कानून सजा देता। उसके बाद बिना जांचे परखे हिंसा बहुत को लील गई लेकिन कानून खामोश रहा , भीड़ का इंसाफ कैसे सही हो सकता है , पालघर में जो हुआ वो संविधान और और देश को और सदभाव को जख्मी करने के लिए काफ़ी था । बहुत से सांसद अपनी डफली अपना राग अलाप रहे थे । इक तो इतने तक भी कह गए रामजादो की सरकार चाहीए कि हराम जादो की, क्या धार्मिक सदभाव की मिसाल थी , ऐसी भाषा बहुत से नेता प्रयोग में लाते रहे हैं । फिर होती हैं कांवड़ यात्रा फूल बरसाए जाते हैं और डीजे की ऐसी इजाजत की लोगों के घरों की खिड़कियों के शीशे तक चटक गए कुछ खबरों के अनुसार कुछ लोग ह्रदय घात की दहलीज पर पहुंच गए यह कैसा सदभाव है ? हर कोई छोटा बडा उनको गाली देने लग और उनके लोग इधर वालों को गाली देने में मशगूल हो गए किसी तरफ भी भड़काने वालों पर कोई कारवाही नही । टीवी पर ऐसी बहस को इजाजत जो दोनो तरफ की भावनाएं आहत करती है , सदभाव कहां से आता ? जिन्होंने हत्याएं की या बलात्कार किए उन्हे मंत्री हार पहनाते देखे गए । बहुत उम्मीद थी कि कानून का शासन कायम होगा और सरकार सब को एक आंख से देखेगी यहां भी एक वर्ग के लोगो पर ऐसे केस भी दर्ज हुए जिनके गुनाह साबित नही हुए । इस कदर पंगु प्रशासन की देहली में महीनों तक एक वर्ग के लोग रास्ता रोक कर बैठे रहें लेकिन जब तक हाथ से मामला निकल नही गया कुछ बेगुनाह मर नही गए सरकार ने कार्यवाही नही की धर्म निरपेक्ष लोगो ने तब आग लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन सरकार तब तक नही हिली जब तक आग लग नही गई क्या शानदार उदाहरण था सदभाव का ? ऐसी एक नही सैकड़ों घटनाएं हैं जिन्होंने सदभाव के सिद्धांत को सिरे से खारिज कर दिया और आज नफरतों का बाजार गर्म हैं । दो शब्द लव जिहाद और जमीन जिहाद लेकिन सरकार को चिंता नही , वारदाते हो रही है सरकारें अपने अपने गुनाभाग पर हैं । धार्मिक स्थल शोर के साधन बन गए हैं आस्था को बजाए शोर है सदभाव की बजाए नफरत चल रहीं हैं जनता को समझ नही आ रहा कि वो किधर जाएं । जिसको चोट लगती है वो अकेला सहन करता है राजनितिक दल अपनी धर्म निरपेक्षता और सद्भावना का खेल खेल रहे हैं क्या अंतर पड़ता हैं राजनीति को एक चिराग चंबा में बुझ गया और सद्भावना ने घर जला दिया। सेंक तो उस मां को है जिसका लाल बेरहम तरीके से कत्ल कर दिया गया । न राहुल गांधी की मोहब्बत की दुकान दिखाई दी न इधर से किसी की सदभावना।बस यहीं खेल कम सी कम अभी आठ महीने और चलेगा ।

धन्याबाद ।

उमेश बाली ।

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