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“कबाड़खाना” ‘एक प्रैक्टिकल लेख’:- लेखक हेमंत शर्मा*

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“कबाड़खाना” ‘एक प्रैक्टिकल लेख’:- लेखक हेमंत शर्मा*

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कबाड़खाना…
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कई बार सोचता हूं कि मैनें अपने जेहन को कबाड़खाना बना कर रखा हुआ है। जो भी इधर-उधर से मिला ठूंस दिया। बेतरतीब। जरूरी- गैर जरूरी सब एक ही जगह। तिस पर ख्वाहिशों का कबाड़खाना अलग से आकार लेता रहता है। पता नहीं क्या कुछ चाहते हैं हम। नामालूम कितना सारा। कायदे से यह खराब आदत है।
यही हाल मेरी दूसरी चीजों का होता है। पुस्तकें सहेज कर नहीं रख पाता। कौन सा कागज पता नहीं किस फाइल में ठूंस दिया है। फिर जब मुझे जरूरत होती है तो घंटों तलाशो। ढूंढने का प्रॉसेस बहुत थकाने वाला होता है लेकिन उबाऊ हरगिज नहीं। इसमें भी मजा है। कई ऐसी चीचें हाथ लग जाती हैं जिन्हें मैं करीबन भूला चुका था। हां समय जरूर बर्बाद होता है।
खैर ये ढूंढने की प्रक्रिया कई बार आधी रात तक चलती है। फिर मैं प्रण कर लेता हूं कि कल से हर चीज को उनकी जगह ठिकाने से रखना है। रखता भी हूं। लेकिन मैं इस बात पर ज्यादा कायम नहीं रह पाता। वैसे किसी विद्धान ने कहा है कि जिंदगी प्लान करके नहीं जीनी चाहिए। कई बार लगता है कि बात तो ठीक है। कभी लगता है प्लानिंग तो होनी ही चाहिए। किसी के पास कोई बीच का रास्ता हो तो बताएं।

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