*पाठकों के लेख लेखक संजीव थापर*
प्रिय बंधुओ
यदि अपनी संस्कृति अपने मूल्यों का उपहास देखना चाहते हो तो
सिनेमाघरों में जरूर जाइए और यदि इन्हें बचाए रखना चाहते हो तो अपने नेत्रों को खुला रखें और सिनेमाघरों के पास से कन्नी काट कर निकल जाएं । अब आप इतने भोले भी ना बनिए , आप में से आधे तो उन दृश्यों को देखने जा रहे हैं जो संभवत आपके मन में गुदगुदी पैदा करते हों किंतु साथ ही आपके चरित्र की व्याख्या भी करते हैं । अब “आप तो आप ” ही हो सोच लो अपने चरित्र की चमक बरकरार रखनी है या उस पर धब्बा लगाना है । वैसे सिनेमाघरों की ओर प्रस्थान करने वालो मुझे एक बात तो समझाओ यारो कि आप किस मिट्टी के बने हो । कोई भी ऐरा गेरा नथु खेरा कभी आपके देश को गाली निकालता है , कभी आपकी संस्कृति के ऊपर कटाक्ष करता है , कभी ” भारत ” को ललकारता है ” तेरे टुकड़े होंगे हजार के नारे लगा कर शर्मिंदा करता है , कभी देश के भीतर ही हमारा पलायन करवाता है और हम सब अर्धमूर्छित अवस्था की मानिंद पड़े सब कुछ देख सुन कर भी जरा से भी आंदोलित नहीं होते , लगता है हम सब किसी खास किस्म की मिट्टी से ही बनें हैं । आप को समझाने का कोई फायदा नहीं , आप ऐसा करो झुंड के झुंड जाओ और उन्हें खूब कमाई करवाओ और जब इसकी आंच आपके घरों में पहुंचने लगे जो शायद पहुंचने भी लगी है , क्या पूछा कैसी आंच , अरे भई तुम्हारा भोलापन मेरी जान ले लेगा । अपने घरों के बच्चों से पूछो “ड्रगज” का जाल आपके गांव , कस्वों और शहरों में कितना फैल चुका है और आप अभी तक खर्राटेदार नींद में डूबे हो । तो भाई साहब डूबे रहो उस ” नीरू” की मानिंद जिसका झोंपड़ा जल रहा था और वह बांसुरी बजा रहा था ।